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शनिवार, 17 नवंबर 2012

पहली बार हारे ठाकरे, वो भी मौत से



कभी हार न मानने वाले बाल ठाकरे आखिर मौत से हार गए। पूरे चालीस साल तक महाराष्ट्र की राजनीति के केंद्र में रहने वाले ठाकरे के निधन पर न सिर्फ उनके समर्थक, बल्कि विरोधी भी रो पड़े हैं। पांच-छ: दिनों तक मौत से जंग लड़ने के बाद शनिवार को जब उनके देहावसान की घोषणा हुई, मराठी माणुस असहाय हो उठा। मराठी माणुस के हक़ की लड़ाई लड़ते-लड़ते मुंबई और ठाणे पालिका पर अपने सत्ता स्थापित करवाने के बाद महाराष्ट्र विधान सभा पर भी भगवा परचम फहरा दिए। हमेशा खुद सत्ता से दूर रहने वाले ठाकरे अपने निष्ठावान सिपाहियों का हमेशा ख्याल रखते थे। दूसरे दलों में चल रही  वंशवाद की परम्परा से बेखबर ठाकरे ने कभी अपने परिवार को आगे नहीं बढाया। वरना वो चाहते तो महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर अपने पुत्र उद्धव या भतीजे राज को बैठा देते, लेकिन उन्होंने ऐसा न करके बढ़ती जा रही  परिवारवाद की रीति को करारा तमाचा मारा। शिवाजी पार्क की दशहरा रैली में उन्हें सुनने दूर-दूर से लोग पहुचा करते थे। सिर्फ यही साल है कि  दसहरा रैली में शिवसैनिक अपने "साहेब" को साक्षात नहीं सुन सके। इस बात से उनके समर्थक दुखी जरुर हुए, लेकिन उन्हें यह पता था कि  उनका शेर सलामत है और तबीयत ठीक नहीं होने के कारण रैली में नहीं आ सका। दशहरे के बाद से ही शिवसेना प्रमुख की सेहत को लेकर तरह-तरह की अटकलें लगानी शुरू हो गई थी। दीपावली आते-आते उनकी हालत ज्यादा बिगड़ गयी। नीयति के आगे किसी की चलाती कहाँ है। शनिवार दोपहर बाद मुंबई में सब कुछ सामान्य चल रहा था कि  अचानक डाक्टरों ने उनके निधन की घोषणा कर दी। ठाकरे के आवास मातोश्री पर उस समय उपस्थित हर आमो-ख़ास की आँखे छलक उठी। हर कोई नाम आँखों से उनके अंतिम दर्शन को बांद्रा के कला नगर की तरफ दौड़ पडा। लेकिन किसी भी अनहोनी की आशंका से सतर्क मुंबई पुलिस ने मातोश्री के आस-पास ही नहीं, बल्कि पुरी मुंबई को अपनी आगोश में ले लिया। देर रात तक मुंबई में शान्ति के साथ जो अभूतपूर्व बंदी दिखी, उसे देख कर यही लग रहा था कि  महानगर के लोग अपने कर्मवीर नेता को अश्रुपूर्ण श्रद्धांजलि दे रहे हैं। ठाकरे आज भले ही हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनके द्वारा मराठी भूमिपुत्रों के लिए किया गया संघर्ष दुसरे नेताओं के लिए एक नजीर बन कर रहा गया है। आज वो लोग भी ठाकरे की याद में कसीदें पढ़ रहे हैं, जो कभी उनके धुर विरोधी हुआ करते थे। भारतीय राजनीति में अपनी तरह की प्रतिभा के वो एकमात्र विरले व्यक्तित्व रहे,जिनका सारा जीवन मराठी माणुस और हिंदुत्व की सेवा में बीता।

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