हे भगवान, खेती के लिए बिजली नहीं. बबुआ के लैपटॉप कईसे चली |
मायावती ने अपने शासनकाल में लखनऊ के पार्कों का न सिर्फ अम्बेडकरीकरण किया, बल्कि अपनी ही पार्टी के हाथियों और अपने बुत लगवा डाले. खुद को महिमा मंडित करने वाली इस परियोजना में माया ने सरकारी खजाने के अरबों रुपये खर्च किये. इसका खामियाजा माया को सत्ता गवां कर भुगतना पड़ा. माया की विदाई के बाद यूपी की कमान सपा के युवा नेता अखिलेश यादव के हाथों में आ गयी. जिनको महज इसलिए लोगों ने समर्थन दिया कि वो नई सोंच के साथ राज्य के विकास पर ध्यान देंगे, लेकिन मतदाताओं की उम्मीदों पर अखिलेश ने पानी फेर दिया. सपा की इस सरकार ने साल भर में कुछ ऐसा तो नहीं किया, जिसे याद किया जा सके. हां, ये बात जरूर है कि बसपा शासन काल में पुलिस के डर से दुबके दबंग सपाई खुलेआम सड़क पर आ गए. कई दंगों से रू-ब-रू हुई अखिलेश सरकार को पार्टी के ही तमाम विधायकों और मंत्रियों की वजह से शर्मसार होना पड़ा. पांच साल तक आपराधिक अज्ञातवास भोगे सपाइयों के लिए यह सरकार वरदान साबित हुई है. अखिलेश के नेतृत्व में पार्टी के छुटभैये नेताओं ने पूरे प्रदेश में दूसरी पार्टियों के कई जिला परिषद अध्यक्षों और ब्लाक प्रमुखों को हटाकर अपने लोगों को पदस्थ किया. इससे सपा थोड़ी मजबूत तो होती दिखी, लेकिन फैजाबाद समेत कई शहरों में हुए कौमी फसाद ने मतदाताओं के बड़े वर्ग को सपा से दूर कर दिया है. कुंडा में डीएसपी जिया उल हक़ के क़त्ल पर अखिलेश ने जिस तरह की बेचारगी दिखाई, उससे यह साफ़ हो गया है कि युवा नेता में अभी अनुभव की बहुत कमी है. बेरोजगारी भत्ता और लैपटाप बाँट कर लोगों का दिल जीतने निकले अखिलेश के सामने सूबे की क़ानून व्यवस्था को पटरी पर लाना बहुत बड़ी चुनौती है. क्योकि क़ानून व्यवस्था सुधारने के दौरान उनका सामना सबसे पहले अपनों से ही होने वाला है. कई बार चुनौती देने के बावजूद पार्टी के कार्यकर्ता अपनी हरकतों से बाज नहीं आ रहे. इसमें ख़ास बात यह है कि सबसे ज्यादा दागियों को सपा ने ही टिकट दिया था और ज्यादातर जीतने में भी सफल रहे. कइयों को तो लालबत्ती भी दे दी गयी है. अब भला वो चुप कैसे रहते. पांच साल तक भूमिगत रहने के बाद जब अपनी सरकार बनी है, तो उसका फ़ायदा उठाएंगे ही. इस सरकार की तमाम योजनायें भी हास्यास्पद होकर रह गयी हैं. बेरोजगारी भत्ते को देखें, ८ करोड़ भत्ता बांटने के लिए जो जगह-जगह कार्यक्रम आयोजित किये गए, उन पर कुल १२ करोड़ रुपये का खर्च आया है. ये तो वही कहावत हुई कि चार आने की मुर्गी और बारह आने का मसाला. इसी तरह लैपटॉप देकर युवाओं में सूचना तकनीकी का संचार करने का प्रयास किया गया है. लेकिन समस्या यह है कि जिस प्रदेश में किसानों को खेत सींचने के लिए बिजली नहीं मिल रही है, वहां लैपटॉप कैसे चार्ज किये जायेंगे. आज यूपी की हालत यह है कि मोबाइल की बैटरी चार्ज करने को बिजली नहीं मिल रही है, तो लैपटॉप और टैबलेट कहाँ से चार्ज किये जायेंगे. प्रदेश में बढ़ रहे अपराध से लोगों का ध्यान हटाने के लिए अखिलेश द्वारा युवाओं को आकर्षित करने के ये जो उपक्रम शुरू किये गए हैं, वे जमीनी हकीकत से काफी परे हैं. इस वजह से सरकार क़ानून व्यवस्था का जो डैमेज कंट्रोल करना चाह रही है, उसमे कामयाबी मिलना मुश्किल लग रहा है. सबसे बड़ी बात यह सरकार आम शहरी को सुरक्षा मुहैया कराने में असफल साबित हुई है, ऐसे में अखिलेश के एक साल के सफ़र को फ्लॉप शो ही कहा जाएगा.
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